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सावन मास में शिव जी पूजा क्यों होती है

 
सावन मास में शिव जी पूजा क्यों होती है

जिनके माथे पर चंद्रमा है जो कि जल तत्व का प्रतीक है। जिनकी जटाओं में गंगा है जो जल ही नहीं आपः है। आपः यानी आस्था से सिक्त जल।शिव जो स्वयं केदार हैं। केदार अर्थात जल से भरा हुआ खेत। जो शिव है। शिव जो कल्याणकारी तो हैं हीं मगर शिव का एक अर्थ पशु धन को थामनेवाला खूंटा भी होता है। शिव का वाहन नंदी है। जो कि किसान के हल में जुतकर उसकी हर समस्या हल कर देता है। इस कृषिप्रधान देश की अस्मिता का प्रतीक है किसान। और इस समग्र किसान चेतना का प्रतीक है- शिव। टकटकी लगाए वर्ष भर किसान इंतजार करता है आकाश में घुमड़ते काले-काले बादलों का। सावन में चारों तरफ हरीतिमा बिखरने से धरती पर उल्लास का भाव होता है। वर्षा की बूंदों से बरसता यह अलौकिक उल्लास ही शिव है। इस वर्षा का ही सम्मान है कि हम अपने देश भारत को भारतवर्ष कहते हैं। जो वर्षा को धारण करे वह वर्ष है। हम एक वर्षा से दूसरी वर्षा की अवधि को एक वर्ष कहते हैं। यानि की काल को नापने का पैमाना भी हमारे यहां वर्षा है। तो फिर काल को संचालित करनेवाला महाकाल तो स्वयं सावन होता है। वैदिक संस्कृति में एक सूर्योदय से एक सूर्यास्त का जो काल है उसे भी सावन कहा गया है। तो फिर जब स्वयं शिव सावन है तो फिर क्यों सनत कुमारों ने महादेव से उनके सावन के महीने को पसंद करने का कारण पूछा। ऐसा नहीं कि ब्रह्मा पुत्र इस सत्य को नहीं जानते होंगे। अगर वे प्रश्न नहीं पूछते तो कैसे ये तथ्य उदघाटित होता कि हिमालय में जन्मी कन्या पार्वती वही सती है जिसने कि पिछले जन्म में अपने पति शिव का पिता द्वारा उपहास करने पर योग शक्ति से अपने प्राण त्याग दिए थे। और इस मास में ही निराहार रहकर अपनी कठोर तपस्या से पार्वती ने शिव को प्रसन्न किया था। इस तरह सावन शक्ति (पार्वती) और शक्तिमान (शिव) दोनों के मिलन का केन्द्र हैं। चातुर्मास्य में जब भगवान विष्णु शयन के लिए जाते हैं, तब शिव ही तो हैं जो तीनों लोकों की सत्ता संभालते हैं। श्मशानी रुद्र ग्रहस्थ बनकर विवाह रचाते हैं। लेकिन यह लौकिक विवाह नहीं है। यह ब्रह्म और प्रकृति का विवाह है। यही सावन की शिवरात्रि है। इस शिवरात्रि के बाद आती है- नाग पंचमी। नाग काल का प्रतीक है। जो काल सापेक्ष नहीं है उसका कोई विकास संभव नहीं। शिव तो स्वयं त्रिकालदर्शी हैं। प्रकारांतर से नाग की पूजा महाकाल के साथ-साथ काल की ही पूजा है। रक्षा बंधन से ठीक पहले घर के द्वार पर नाग बनाकर उनकी पूजा करने का हमारे यहां विधान है। श्रावण मास की पंचमी को जहां नागों की पूजा की जाती है, वहां नवमी तिथि को नेवलों की पूजा की जाती है। नउरी नवमी पर नेवला पूजन इस बात की घोषणा है कि जीव ही जीव का भक्षक है। और सांप कितना ही विषैला क्यों न हो अंततः वह नेवले से हार ही जाता है। विषपायी शिव को जिसने देवासुर संग्राम में निकले संसार के सबसे तीक्ष्ण विष हलाहल को कंठ में धारण कर लिया हो, विष के उस दाह को शमित करने के लिए ही देवों और भक्तों द्वारा किया गया पवित्र जल से उनका विराट अभिषेक। तभी से चली आ रही है अभिषेक की परिपाटी। उसी का सामाजिकरूप है-कांवर यात्रा। संसार का पहला कंवरिया था-महाशिवभक्त-रावण। जिसकी एक कांवर में थे शिव और दूलरी कांवर में था गंगाजल। अपने आराध्य को कैलास से लंका ले जाने को रावण चल पड़ा कंधे पर लिए कांवर। मगर बिहार के वैद्यनाथ धाम तक आते-आते वह श्रमश्लथ हो गया। बालक बने नारद को उसने कांवर थमाई। थोड़ी देर बाद जब रावण शंका निवृत होकर आय़ा तो जमीन पर कांवर रख कर बालक गायब दो चुका था। कांवर जमीन पर न रखने का विधान जो है। इसलिए शिव पत्थर के होकर वहीं रह गए। मगर भगवान शिव की भक्ति और आराधना से जुडे़ भक्तगण आज भी देश की विभिन्न पवित्र नदियों से जल इकट्ठा करके प्रसिद्ध शिवलिंगों पर जलाभिषेक करते हुए गृह स्थल पर जाकर अपनी कांवर यात्रा संपन्न करते हैं। 1857 की क्रांति का एक मात्र चश्मदीद गवाह पुणे से वाराणसी तक पैदल कांवर लेकर चलनेवाला विष्णुभट्ट गोडसे भी परम शिवभक्त था। कांवरिये वे तपस्वी होते हैं जो जप, तप और व्रत, इन तीनों त्यागमयी वृत्तियों को एक साथ उपलब्ध होते हैं। कांवर काटता है काम को कावर शब्द बना ही कामरि से है। कांवर यानी काम की अरि। जो काम को काट दे  वह कांवर। मगर दुर्भाग्य से आज कांवर यात्रा में ऐसे कांवरिये भी शरीक हो जाते हैं जिनके आचरण और व्यवहार से यह पवित्र तीर्थ-यात्रा महज एक मौज-मस्ती और सैर सपाटे का जरिया बनती जा रही है। कभी कांवर परंपरा धार्मिक आस्थाओं की पूर्ति के साथ-साथ भारत की चारों दिशाओं में रह रहे लोगों में एक सामाजिक-सांस्कृतिक संवाद स्थापित करने का लोक माध्यम हुआ करती थी वही कांवर यात्रा आज के बाज़ारवादी दौर में अपने मूल उद्श्य से भटककर सामाजिक और धार्मिक संगठनों की शक्ति के दिखावे और पाखंड का प्रदर्शन बनती जा रही हैं। कुछ कांवरियों को अभद्रता और ड्रग तस्करी में शामिल भी पाया गया। इस कुकृत्य ने पर्यावरण और राष्ट्रीय एकता के यज्ञ को भी दूषित कर दिया। हर वर्ष कांवरियों की संख्या जहां लगातार बढ़ रही है वहीं पर्यावरण और प्रशासन के लिए अनियंत्रित भीड़ एक समस्या भी बनती जा रही है। गोमुख, नीलकंठ व हरिद्वार से लेकर पवित्र कैलास और मानसरोवर तक धीरे-धीरे प्लास्टिक,पॉलीथिन और मानव कचरे के बोझ और कार,मोटरों की चौं-चौं,पौं-पौं से चरमरा उठे हैं। साढे बाहर हजार फुट ऊंचे अमरनाथ का सबसे बड़ा ग्लेशियर कोलेहोई जो कभी 17 कि.मी. तक फैला था आज प्रदूषण की मार झेलते हुए सिकुड़कर 2.63 कि.मी. रह गया है। कारों और बसों से निकलनेवाले जहरीले धुएं ने सदानीरा नदियों का कत्ल कर दिया है। इस प्रदूषण ने वनस्पति और प्राणियों के अस्तित्व को भी खतरे में डाल दिया है। जिस गंगाजल और अन्य पवित्र नदियों के जल से अभिषेक कर के भक्तगण शिव को प्रसन्न करना चाहते हैं उन्हीं नदियों को हमने नाला बना दिया है। समय आ गया है कि कांवर की आस्था में पर्यावरण की चेतना को भी जोड़ा जाए। सावन में होते हैं तंत्र पौराणिक ग्रंथों में भगवान शंकर को तंत्र का अधिपति भी माना गया है। इसलिए सावन के महीने में मनोकामना की पूर्ति हेतु लोग तंत्र विधान से बम-बम भोले को प्रसन्न करने में भी लग जाते हैं। आज के दौर में ये टोने-टोटे कितने प्रासंगिक हैं इस तथ्य को खंगाले बिना भी तमाम अंधविश्वासी तंत्रसिद्धि में जुट जाते हैं।