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महाराज युधिष्ठिर के क्रोध के त्याग की कहानी

 
महाराज युधिष्ठिर के क्रोध के त्याग की कहानी
महान आचार्य द्रोणाचार्य के पास अनेक राजकुमार विद्याध्ययन के लिए आते थे। इनमें महाराज युधिष्ठिर सबमें बड़े थे। उनकी पहली पुस्तक का पहला पाठ था कि 'मनुष्य को क्रोध त्याग देना चाहिए, क्योंकि क्रोध के समान कोई दुष्ट नहीं जो कि स्वयं अपनी माता को भक्षण कर जाता है।' 
युधिष्ठिर का मन इस वाक्य पर अटक गया। चाहे प्राण चले जाएं, पर क्रोध न करूंगा और जब तक क्रोध को न जीत लूंगा तब तक आगे पढ़ाई करना मेरे बूते के बाहर है और फिर पढ़ाई से मुख मोड़ लिया।
कुछ समय बीतने पर परीक्षक ने उन सभी राजकुमारों की परीक्षा ली। बारी-बारी से प्रायः सभी ने एक-एक कर अपने पाठ सुना दिए। किंतु युधिष्ठिर ने कहा कि मुझे तो पहिला ही पाठ याद है और कोई पाठ याद नहीं है। 
परीक्षक को तुरंत क्रोध आया और वे युधिष्ठिर को सटासट बेतें मारने लगे। जब अंततः परीक्षक बेतें मारते-मारते थक गए तो भी युधिष्ठिर के चेहरे पर क्रोध की रंच मात्र भी झलक नहीं पड़ी। तब परीक्षक ने द्रोणाचार्य को बुलाकर कहा कि 'युद्धिष्ठिर सभी राजकुमारों में बड़े है, परंतु इन्होंने सबसे कम वाक्य लिखे हैं।' 
इस पर द्रोणाचार्य ने कहा कि हम भी भूल पर हैं कि इन्होंने पहले पाठ को अपने आचरण में उतार लिया है कि इतनी अधिक पिटाई होते हुए भी इनके चेहरे पर लेशमात्र भी क्रोध का नामोनिशान नहीं है। 
परीक्षक तो जैसे लज्जा से गड़ गए वे कुछ बोल न पाए और युधिष्ठिर से क्षमा मांग बैठे