Vat Savitri Vrat

 


वट सावित्री व्रत की तिथि को लेकर कुछ भिन्न्ता है। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार यह व्रत ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को किया जाता है जबकि निर्णयामृत आदि के अनुसार इस व्रत को ज्येष्ठ मास की अमावस्या को करने की बात कही गई है। हालांकि विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा उत्तम मानते हैं।

ऐसी मान्यता है कि वटवृक्ष की जडों में ब्रह्मा, तने में भगवान विष्णु व डालियों व पत्तियों में भगवान शिव का निवास स्थान है। इस व्रत में महिलाएं वट वृक्ष की पूजा करती हैं, सति सावित्री की कथा सुनने व वाचन करने से सौभाग्यवति महिलाओं की अखंड सौभाग्य की कामना पूरी होती है। 

यह व्रत स्त्रियों के लिए अति लाभकारी कहा गया है। भारतीय संस्कृति में तो यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत को सौभाग्य और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला माना गया है। नारी वर्ग के लिए इस व्रत का बहुत ही अधिक महत्त्व है। 

कहा गया है कि स्त्री की कुण्डली में कितना भी सौभाग्य नाशक दोष क्यों न हो, इस व्रत को करने से वह दोष नष्ट होता है और सुख सौभाग्य की प्राप्ति होती है। इसी बात को शास्त्रों में इस श्लोक के रूप में कहा गया है कि-

सावित्र्यादिव्रतादीनि भक्त्या कुर्वन्ति याः स्त्रियः।
सौभाग्यं च सुहत्त्वं च भवेत् तासां सुसङ्गतिः॥

इस व्रत को सभी स्त्रियां कर सकती हैं। स्कंद पुराण में कहा गया है कि-

नारी वा विधवा वापि पुत्रीपुत्रविवर्जिता ।
सभर्तृका सपुत्रा वा कुर्याद् व्रतामिदं शुभम् ॥
 
अर्थात् स्त्री सधवा हो या विधवा पुत्र-पुत्री से हीन यो या युक्त अर्थात सभी को यह व्रत अवश्य ही करना चाहिए। इस व्रत के करने से अखंड पातिव्रत्य पुत्र-पौत्र आदि की प्राप्ति एवं अकाल मृत्यु से बचाव आदि सुफल प्राप्त होते हैं।

जैसा कि इस व्रत के नाम अर्थात वट सावित्री से ही प्रतीत होता है कि इस व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशेष महत्त्व है। वट अर्थात बरगद का पेड़। पुराणों में कहा गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। वट वृक्ष के मूल में ब्रह्मा, मध्य में विष्णु तथा अग्रभाग में शिव रहते हैं। 

अत: इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।