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दंड देते हैं तो भलाई के लिये

 

 

स्वामी विरजानंद {दंडी स्वामी} की पाठशाला में शिष्य पढाई करने आते पर कुछ समय तक ही रह पाते !
उनके क्रोध एवं उनकी प्रताड़ना को सहन न कर सकने के कारण भाग जाते !कोई विरला शिष्य ही ऐसा होता जो उनके पास पूरा समय रहकर पूरी शिक्षा प्राप्त कर पाता !यह दंडी स्वामी की एक बहुत बड़ी कमजोरी थी !
दयानंद सरस्वती को भी उनसे कई बार दंड मिला मगर वे दृढ़ निश्चयी थे अतः पूरी शिक्षा प्राप्त करने का संकल्प कर डटे रहे !
एक दिन दंडी स्वामी को उन पर बहुत क्रोध आया और उन्होंने अपने हाथ में ली हुई छड़ी से दयानंद की खूब पिटाई कर दी !उनकी खूब भर्त्सना करते हुए उन्हें मूर्ख नालायक धूर्त पता नहीं क्या-क्या कहते चले गये !
दयानंद के हाथ में चोट लग गई थी ;काफी दर्द हो रहा था !मगर दयानंद ने बिल्कुल भी बुरा नहीं माना बल्कि उठकर गुरु जी के हाथ को अपने हाथ में ले लिया और सहलाते हुए बोले -आपके कोमल हाथों को कष्ट हुआ होगा ;इसके लिए मुझे खेद है !
दंडी स्वामी ने दयानंद का हाथ झटकते हुए कहा -पहले तो मूर्खता करता है फिर चमचागिरी ;यह मुझे बिलकुल भी पसंद नही !
पाठशाला के सब विद्यार्थियों ने यह दृश्य देखा !उनमें एक नयनसुख था जो गुरु जी का सबसे चहेता विद्यार्थी था !नयनसुख को दयानंद से सहानुभूति हो आई !वह उठा और गुरु जी के पास गया तथा बड़े ही संयम से बोला -गुरु जी यह तो आप भी जानते हैं कि दयानंद मेधावी छात्र है परिश्रम भी बहुत करता है !
दंडी स्वामी को अपनी गलती का अहसास हो चुका था !अब उन्होंने दयानंद को अपने करीब बुलाया ;उसके कंधे पर हाथ रखकर बोले -भविष्य में हम तुम्हारा पूरा ध्यान रखेंगे और तुम्हें पूरा सम्मान देंगे !
जैसे ही छुट्टी हुई दयानंद ने नयनसुख के पास जाकर कहा -मेरी सिफारिश करके तुमने अच्‍छा नहीं किया !गुरु जी तो हमारे हितैषी हैं दंड देते हैं तो हमारी भलाई के लिये ही ;हम कहीं बिगड़ न जाये उनको यही चिंता रहती है !
यही दयानंद आगे चलकर महर्षि दयानंद कहलाये और ‍वैदिक धर्म के संरक्षण हेतु आर्य समाज की स्थापना की !