पुराणों में ऎसा उल्लेख है, कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक पाताल लोक में निवास करते है। कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी से श्री विष्णु उस लोक के लिये गमन करते है। आषाढ मास से कार्तिक मास के मध्य के समय को चातुर्मास कहते है। इन चार माहों में भगवान श्री विष्णु क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते है। इसलिये इन माह अवधियों में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृ्षि और विवाहादि सभी शुभ कार्यो करने बन्द कर दिये जाते है।
इस चातुर्मास काल को भगवान श्री विष्णु का निद्राकाल माना जाता है। इन दिनों में तपस्वी एक स्थान पर रहकर ही तप करते है। धार्मिक यात्राओं में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। ब्रज के विषय में यह मान्यता है, कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर तीर्थ ब्रज में निवास करते है। बेवतीपुराण में भी इस एकादशी का वर्णन किया गया है। यह एकादशी उपवासक की सभी कामनाएं पूरी करती है। एक एकादशी को "प्रबोधनी" के नाम से भी जाना जाता है।
देवशयनी एकादशी व्रत विधि : देवशयनी एकादशी व्रत को करने के लिये व्यक्ति को इस व्रत की तैयारी दशमी तिथि की रात्रि से ही करनी होती है। दशमी तिथि की रात्रि के भोजन में किसी भी प्रकार का तामसिक प्रवृ्ति का भोजन नहीं होना चाहिए। भोजन में नमक का प्रयोग करने से व्रत के शुभ फलों में कमी होती है। इस दिन व्यक्ति को भूमि पर शयन करना चाहिए और जौ, मांस, गेहूं तथा मूंग की दान का सेवन करने से बचना चाहिए। यह व्रत दशमी तिथि से शुरु होकर द्वादशी तिथि के प्रात:काल तक चलता है।
दशमी तिथि और एकाद्शी तिथि दोनों ही तिथियों में सत्य बोलना और दूसरों को दु:ख या अहित होने वाले शब्दों का प्रयोग करने से बचना चाहिए। इसके अतिरिक्त शास्त्रों में व्रत के जो सामान्य नियम बताये गए है, उनका सख्ती से पालन करना चाहिए। एकाद्शी तिथि में व्रत करने के लिये सुबह जल्दी उठना चाहिए। नित्यक्रियाओं को करने के बाद, स्नान करना चाहिए। एकादशी तिथि का स्नान अगर किसी तीर्थ स्थान या पवित्र नदी में किया जाता है, तो वह विशेष रुप से शुभ रहता है। किसी कारण वश अगर यह संभव न हो, तो उपवासक इस दिन घर में ही स्नान कर सकता है।
स्नान करने के लिये भी मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान कार्य करने के बाद भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। पूजन करने के लिए धान्य के ऊपर कुम्भ रख कर, कुम्भ को लाल रंग के वस्त्र से बांधना चाहिए। इसके बाद कुम्भ की पूजा करनी चाहिए। जिसे कुम्भ स्थापना के नाम से जाना जाता है। कुम्भ के ऊपर भगवान की प्रतिमा या तस्वीर रख कर पूजा करनी चाहिए। ये सभी क्रियाएं करने के बाद धूप, दीप और पुष्प से पूजा करनी चाहीए।
देवशयनी एकादशी व्रत कथा : प्रबोधनी एकादशी से संबन्धित एक पौराणिक कथा प्रचलित है। सूर्यवंशी मान्धाता नाम का एक राजा था। वह सत्यवादी, महान, प्रतापी और चक्रवती था। वह अपनी प्रजा का पुत्र समान ध्यान रखता था। उसके राज्य में कभी भी अकाल नहीं पडता था। एक समय राजा के राज्य में अकाल पड गया और प्रजा अन्न की कमी के कारण अत्यन्त दु:खी रहने लगी।
राज्य में यज्ञ होने भी बन्द हो गयें तो एक दिन प्रजा राजा के पास जाकर प्रार्थना करने लगी कि हे राजन, समस्त विश्व की सृष्टि का मुख्य कारण वर्षा है। इसी वर्षा के अभाव से राज्य में अकाल पड गया है और अकाल से प्रजा अन्न की कमी से मर रही है। यह देख दु;खी होते हुए राजा ने भगवान से प्रार्थना की हे भगवान, मुझे इस अकाल को समाप्त करने का कोई उपाय बताईए। यह प्रार्थना कर मान्धाता मुख्य व्यक्तियोम को साथ लेकर वन की और चल दिया। घूमते-घूमते वे ब्रह्मा के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंच गयें।
उस स्थान पर राजा रथ से उतरा और आश्रम में गया। वहां मुनि अभी प्रतिदिन की क्रियाओं से निवृ्त हुए ही थें। राजा ने उनके सम्मुख प्रणाम किया और मुनि ने उनको आशिर्वाद दिया, फिर राजा से बोला, कि हे महर्षि, मेरे राज्य में तीन वर्ष से वर्षा नहीं हो रही है। चारों और अकाल पडा हुआ है और प्रजा दु:ख भोग रही है। राजा के पापों के प्रभाव से ही प्रजा को कष्ट मिलता है। ऎसा शास्त्रों में लिखा है, जबकि मैं तो धर्म के सभी नियमों का पालन करता हूँ। इस पर ऋषि बोले की हे राजन, यदि तुम ऎसा ही चाहते हो, तो एकादशी का विधि-पूर्वक व्रत करो।
इस एक व्रत के प्रभाव से तुम्हारे राज्य में वर्षा होगी और प्रजा सुख प्राप्त करेगी। मुनि की बात सुनकर राजा अपने नगर में वापस आया और उसने एकादशी का व्रत किया। इस व्रत के प्रभाव से राज्य में वर्षा हुई और मनुष्यों को सुख प्राप्त हुआ। देवशयनी एकाद्शी व्रत को करने से भगवान श्री विष्णु प्रसन्न होते है अत: मोक्ष की इच्छा करने वाले व्यक्तियों को इस एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिए।