भारतीय विक्रमी सम्वत पंचांग के भाद्रपद मास के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी तिथि के दिन चंद्रमा का दर्शन मिथ्या कलंक देने वाला होता है। इसलिए इस दिन चंद्र दर्शन करना मना होता है। इस चतुर्थी को कलंक चौथ के नाम से भी जाना जाता है। इसी दिन के चन्द्रमा को श्री कृष्ण जी ने देख लिया था, जिसके कारण श्री कृष्ण जी को मणि चोरी करने लाँछन लगा था।
कलंक चतुर्थी कथा :
द्वारकापुरी में सहत्रजीत नामक एक सूर्य देव का भक्त रहता था, वह सूर्य देव जी का परम भक्त था, एक दिन सूर्य देव ने प्रसन्न होकर उसको एक मणि प्रदान की उस मणि का तेज़ बहुत प्रभावशाली था। उस मणि के पास में होने से सभी भय दूर हो जाते थे और सारे दुख दूर हो जाते थे।
एक बार श्री कृष्ण ने राजा उग्रसेन को वो मणि प्रदान करने की सोची,और ये बात सहत्रजीत से कही। मगर सहस्त्रजीत ने मणि देने से इनकार कर दिया तथा वो मणि अपने छोटे भाई को दे दी जिसका नाम प्रसेन था। जिसके बाद एक दिन प्रसेन शिकार खेलने वन गया और उसने एक शेर पर निशाना साधा मगर प्रसेन का निशाना चूक गया। फिर शेर ने उसे मार डाला और मणि अपने मुँह में ले कर चला गया।
तभी ऋछपति जामवंत ने शेर के मुख में मणि को देखा और शेर को मार कर मणि ले ली। इस घटना के बाद सारी प्रजा चर्चा करने लगी की मणि को कृष्ण जी ने चुरा लिया है। जब ये बात श्री कृष्ण जी को पता चली तो उन्ही ने मणि खोजने का निश्चय किया, और मणि खोजने के लिए निकल पड़े। दूर जंगल में जाके श्री कृष्ण ने देखा कि प्रसेन मृत पड़ा हुआ है, और उसके शव के पास में शेर के पद चिन्ह बने हुए थे।
उन्ही पद चिन्हों का पीछा करते हुए कुछ दूर जाने के बाद वो देखते है कि शेर का शव पड़ा हुआ है और उसके बगल में रीछ पे पद चिन्ह बने है तो वो निशान देखते हुए आगे बढे और एक गुफा की तरफ गए, उस गुफा मे से उनको एक दिव्य तेज निकलता हुआ दिखाई दिया वो तेज उस मणि का था। गुफा के अंदर जाकर श्री कृष्ण देखते है कि एक सुन्दर सी स्त्री (जामवंती) उस मणि से खेल रही थी।
जैसे ही जामवंती ने श्री कृष्ण जी को देखा तो वो जोर से चीख उठी और उसकी चीख सुन कर ऋछपति जामवंत वहां आ पहुचे। उन्होंने श्री कृष्ण जी को युद्ध की चुनौती दे दी जिसके बाद फिर दोनों में घमासान मल्ल युध हुआ और उस युध में श्री कृष्ण जी की विजय हुई। ऋछपति ने श्री कृष्ण के पराक्रम से खुश होकर मणि के साथ अपनी पुत्री जामवंती का विवाह भी श्री कृष्ण जी से कर दिया। फिर उस मणि को ले जाकर श्री कृष्ण जी ने सहत्रजीत को वापस दे दिया, जब वो बात द्वारिका वासियों को पता चली तो वे बड़े लज्जित हुए और श्री कृष्ण जी से माफ़ी भी मांगी।