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Upcoming Festival-When is Vat Savitri Purnima Vrat in the Year 2021

 

When is Vat Savitri Purnima Vrat in the Year 2021 Date

June 23, 2021 - Wednesday
वट सावित्री व्रत सौभाग्य को देने वाला और संतान की प्राप्ति में सहायता देने वाला व्रत माना गया है। भारतीय संस्कृति में यह व्रत आदर्श नारीत्व का प्रतीक बन चुका है। इस व्रत की तिथि को लेकर भिन्न मत हैं। स्कंद पुराण तथा भविष्योत्तर पुराण के अनुसार ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को यह व्रत करने का विधान है, वहीं निर्णयामृत आदि के अनुसार ज्येष्ठ मास की अमावस्या को व्रत करने की बात कही गई है।

तिथियों में भिन्नता होते हुए भी व्रत का उद्देश्य एक ही है सौभाग्य की वृद्धि और पतिव्रत के संस्कारों को आत्मसात करना। कई व्रत विशेषज्ञ यह व्रत ज्येष्ठ मास की त्रयोदशी से अमावस्या तक तीन दिनों तक करने में विस्वास रखते हैं। इसी तरह शुक्ल पक्ष की त्रयोदशी से पूर्णिमा तक भी यह व्रत किया जाता है। विष्णु उपासक इस व्रत को पूर्णिमा को करना ज्यादा अच्छा मानते हैं।
 
वट सावित्री व्रत में 'वट' और 'सावित्री' दोनों का विशिष्ट महत्व माना गया है। पीपल की तरह वट या बरगद के पेड़ का भी विशेष महत्व है। पाराशर मुनि के अनुसार वट मूले तोपवासा ऐसा कहा गया है। पुराणों में यह स्पष्ट किया गया है कि वट में ब्रह्मा, विष्णु व महेश तीनों का वास है। इसके नीचे बैठकर पूजन, व्रत कथा आदि सुनने से मनोकामना पूरी होती है। वट वृक्ष अपनी विशालता के लिए भी प्रसिद्ध है। संभव है वनगमन में ज्येष्ठ मास की तपती धूप से रक्षा के लिए भी वट के नीचे पूजा की जाती रही हो और बाद में यह धार्मिक परंपरा के रूप में विकसित हो गई हो।
 
वट सावित्री व्रत  पूजा विधि : 
इस दिन सत्यवान सावित्री की यमराज जी के साथ पूजा की जाती है। यह व्रत करने वाली स्त्रियों का सुहाग अचल होता है। सावित्री ने इसी व्रत के प्रभाव से अपने मृतक पति सत्यवान को धर्मराज से भी जीत लिया था। सुवर्ण या मिटटी से सावित्री सत्यवान तथा भैंसे पर सवार यमराज की प्रतिमा  बनाकर धुप, चन्दन, फल, रोली, केसर से पूजन करना चाहिए तथा सवित्री सत्यवान की कथा सुनानी चाहिए।  
 
वट सावित्री व्रत कथा : 
भद्र देश के राजा द्युमत्सेन के यहाँ पुत्री रूप में सर्वगुण सम्पन्न सवित्री का जन्म हुआ। राजकन्या ने द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान की कीर्ति सुनकर उन्हें पतिरूप में वरण कर लिया। इधर यह बात जब नारद को ज्ञात हुई तो वे अश्वपति से जाकर कहने लगे कि आपकी कन्या ने वर खोजने में निसंदेह भारी भूल की है। सत्यवान गुणवान तथा धर्मात्मा भी है पर वह अल्पायु है और एक वर्ष के बाद ही उसकी मृत्यु हो जाएगी।  

नारद जी की यह बात सुनते ही राजा अश्वपति का चेहरा विवर्ण हो गया। 'वृथा ह होहि देव ऋषि बानी' ऐसा विचार करके उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया कि ऐसे अल्पायु व्यक्ति के साथ विवाह उचित नहीं है। इसलिए, तुम कोई अन्य वर चुन लो इस पर सावित्री बोली, पिता जी आर्य कन्यायें अपना पति एक ही बार वरण करती हैं, राजा एक बार ही आज्ञा देता है, पंडित एक ही बार प्रतिज्ञा करते हैं तथा कन्यादान भी एक ही बार किया जाता है।

अब चाहे जो हो मैं सत्यवान को ही वर रूप में स्वीकार करूंगी। सावित्री ने नारद से सत्यवान की मृत्यु का समय पता कर लिया था। अन्ततोगत्वा उन दोनों को पाणिग्रहण संस्कार में बांधा गया। सावित्री ससुराल पहुँचते ही सास-ससुर की सेवा में रत रहने लगी। समय बदला, सावित्री के ससुर का बल क्षीण होता देख शत्रुओ ने उनका राज्य छीन लिया। 
 
नारद का वचन सावित्री को दिन- प्रतिदिन अधीर करता रहा। उसने जब जाना कि पति की मृत्यु का दिन नजदीक आ गया है, तब उसने तीन दिन पूर्व से ही उपवास शुरू कर दिया। नारद जी के द्वारा कथित निश्चित तिथि पर पितरों का पूजन किया। नित्य की भांति उस दिन भी सत्यवान अपने समय पर लकड़ी काटने के लिए जब चला तो सावित्री भी सास ससुर की आज्ञा से चलने को तैयार हो गयी।  
 
सत्यवान वन में पहुंचकर लकड़ी काटने के लिए एक वृक्ष पर चढ़ गया। वृक्ष पर चढ़ते ही सत्यवान के सिर में असहनीय पीड़ा होने लगी, वह व्याकुल हो गया और वृक्ष के ऊपर से नीचे उतर आया। सावित्री अपना भविष्य समझ गयी, तथा अपनी गोद में सत्यवान को लिटा लिया। उसी समय सावित्री ने दक्षिण दिशा से अत्यंत प्रभावशाली महिषारूढ़ यमराज को आते देखा। धर्मराज सत्यवान के जीवन को जब लेकर चल दिए तो सावित्री उनके पीछे चल दी। पहले तो यमराज ने उसे दैवी विधान सुनाया, ज्ञान दिया, धर्म कर्म की बातें बताई। किन्तु उसकी पतिव्रता और निष्ठा देखकर सावित्री को  वरदान मांगने के लिए कहा। 
 
इस पर सावित्री बोली मेरे सास ससुर वनवासी तथा अंधे हैं, उन्हें आप दिव्य ज्योति प्रदान करें। यमराज ने कहा ऐसा ही होगा, अब लौट जाओ। यमराज की बात सुनकर उसने कहा भगवान्! मुझे अपने पतिदेव के पीछे पीछे चलने में कोई परेशानी नहीं, पति अनुगमन मेरा कृतव्य है। यह सुनकर यमराज ने सावित्री को फिर से वर मांगने को कहा। 
 
सावित्री बोली हमारे ससुर का राज्य छिन गया है उसे वे पुनः प्राप्त कर लें तथा धर्मपरायण हो। यमराज ने यह वर भी सावित्री को देकर लौट जाने को कहा, परन्तु उसने पीछा न छोड़ा। अंत में यमराज को सत्यवान के प्राण छोड़ने पड़े तथा सावित्री को सौभाग्यवती हो सौ पुत्र होने का वरदान देना पड़ा। 

सावित्री को यह वरदान देकर धर्मराज अन्तर्धान हो गए। इस प्रकार सावित्री उस वटवृक्ष के नीचे आई जहां पति का मृत शरीर पड़ा था। भगवान की कृपा से उसके पति में जीवन संचार हुआ तथा सत्यवान उठकर बैठ गए। दोनों हर्ष से प्रेमालिंगन करके राजधानी को ओर गए। उन्होंने माता पिता को भी दिव्य ज्योति वाला पाया, इस प्रकार सावित्री सत्यवान चिरकाल तक राज्य सुख भोगते रहे।