Shanivar Vrat

 

Talk about Shani or Sani to a Hindu and the first reaction will be fear and then the mentioning of ill effects and troubles. Shani is dreaded by Hindus, especially by those who believe in astrology. Many people observe an Upvaas or fast to avoid the adversities and misfortunes on Shanivar or Saturday. 

It is believed that those who have the blessing of Lord Hanuman are protected from the wrath of Shani. Therefore many people make it a point to worship Hanuman at home or in temples. Black is the preferred color on Saturday.
 
Shani, one of the Navagrahas, is worshipped in numerous temples and there are also temples exclusively dedicated to Sanidev. Devotees who are observing Shanivar Vrat usually visit Shani shrines. Black colored items like sesame til, sesame oil, black clothes, and black gram whole are offered to Shanidev Ji. It must be noted here that the color of the idol of Shani is always black.
 
Those devotees who fast on Saturday only take a single meal that too in the evening after prayers. Food prepared usually consists of sesame til or black gram or any other black colored food item. Salt is avoided by many on the day.
 
Shani is represented as a deity carrying bow and arrows and riding a vulture. Some devotees worship a black iron idol of Sani. Some worship the Peepal Tree and tie thread around its bark. Black colored items like sesame oil and black clothes are also donated on the day.
 
Shani is so dreaded that many Hindus avoid journeys on Saturday. There are also numerous tales regarding the evil effects of Shani.
 
But generally it is believed that Lord Hanuman devotees are unharmed by Sani. Legend has it that Lord Hanuman had rescued Shani from Ravana. This happened during the burning of the Lanka episode in the epic Ramayana. Lord Shani had then promised that he would not trouble Lord Hanuman devotees.

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शनिवार व्रत कथा : 

एक समय सभी नवग्रहओं : सूर्य, चंद्र, मंगल, बुद्ध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु और केतु में विवाद छिड़ गया, कि इनमें सबसे बड़ा कौन है? सभी आपस में लड़ने लगे, और कोई निर्णय ना होने पर देवराज इंद्र के पास निर्णय कराने पहुंचे।  इंद्रदेव यह देखकर घबरा गये, और इस विवाद का निर्णय देने में अपनी असमर्थता जतायी। मगर समाधान के रूप में उन्होंने कहा, कि इस समय पृथ्वी पर एक राजा विक्रमादित्य हैं, जो कि अति न्यायप्रिय हैं। वे ही इसका निर्णय कर सकते हैं। सभी ग्रह फिर एक साथ राजा विक्रमादित्य के पास पहुंचे, और अपना विवाद बताया। साथ ही उचित निर्णय करने के लिये भी कहा।

राजा विक्रमादित्य भी इस समस्या से काफी चिंतित हो उठे, क्योंकि वह जानते थे, कि जिस किसी को भी छोटा बताया, वही कुपित हो उठेगा। तब राजा विक्रमादित्य को एक उपाय सूझा, उन्होंने सुवर्ण, रजत, कांस्य, पीतल, सीसा, रांगा, जस्ता, अभ्रक और लौह से नौ सिंहासन बनवाये, और उन्हें इसी क्रम से रख दिय। फ़िर उन सबसे निवेदन किया, कि आप सभी अपने अपने सिंहासन पर स्थान ग्रहण करें। जो अंतिम सिंहासन पर बठेगा, वही सबसे छोटा होगा। इस अनुसार लौह सिंहासन सबसे बाद में होने के कारण, शनिदेव सबसे बाद में बैठे। तो वही सबसे छोटे कहलाये।

उन्होंने सोचा, कि राजा ने यह जान बूझ कर किया है। उन्होंने कुपित होकर राजा से कहा "राजा! तू मुझे नहीं जानता है, सूर्य किसी भी एक राशि में एक महीना, चंद्रमा सवा दो महीना दो दिन, मंगल डेड़ महीना, बृहस्पति तेरह महीने, व बुद्ध और शुक्र एक एक महीने विचरण करते हैं। परन्तु मैं ढाई से साढ़े-सात साल तक रहता हूँ, बड़े बड़ों का मैंने विनाश किया है। श्री राम जी की साढ़े साती आने पर उन्हें वनवास हो गया, रावण की आने पर उसकी लंका को बंदरों की सेना से परास्त होना पडा। अब तुम सावधान रहना " ऐसा कहकर कुपित होते हुए शनिदेव वहाँ से चले गए, अन्य सभी देवता खुशी खुशी चले गये। 
 
कुछ समय बाद राजा विक्रमादित्य की साढ़े साती आयी। तब शनि देव घोड़ों के सौदागर बनकर उनके पास आये। उनके साथ कई बढ़िया घोड़े थे। राजा ने यह समाचार सुनकर अपने अश्वपाल को अच्छे घोड़े खरीदने की आज्ञा दी। उसने कई अच्छे घोड़े खरीदे व एक सर्वोत्तम घोड़े को राजा को सवारी हेतु दिया। राजा ज्यों ही उसपर बैठा, वह घोड़ा सरपट वन की ओर भागा और फिर भीषण वन में पहुंचकर वह अंतर्धान हो गया। अब राजा विक्रमादित्य जंगल में भूखा प्यासा भटकने लगे, वहीँ उन्हें एक ग्वाले ने पानी पिलाया तो राजा ने प्रसन्न हो कर उसे अपनी अंगूठी दे दी। ग्वाले को वह अंगूठी देकर राजा नगर की ओर चल दिया, और वहां अपना नाम उज्जैन निवासी वीका बताया।

नगर में एक सेठ की दुकान पर उसने जल इत्यादि पिया और कुछ देर विश्राम भी किया। सौभाग्यवश उस दिन सेठ की दुकान पर अच्छी खासी बिक्री हुई। सेठ खुश होकर उसे खाना इत्यादि कराने के लिए अपने साथ घर ले गया। वहां राजा ने एक खूंटी पर देखा, कि एक हार टंगा है, जिसे खूंटी धीरे धीरे निगल रही है। देखते ही देखते थोडी देर में ही पूरा हार गायब हो गए। अब सेठ जैसे ही उसके पास आया तो देखा कि हार गायब है। 
 
सेठ ने समझा कि वीका ने ही उस हार को चुराया है। उसने वीका को कोतवाल के पास पकडवा दिया। फिर राजा ने भी उसे चोर समझ कर हाथ पैर कटवा दिये। अब वह चैरंगिया बन गया और नगर के बहर फिंकवा दिया गया। वहां रस्ते से एक तेली निकल रहा था, जिसे उस पर दया आ गयी, और उसने वीका को अपनी गाडी़ में बिठा लिया। वह अपनी जीभ से बैलों को हांकने लगा। उसी काल ने राजा विक्रमादित्य की शनि दशा समाप्त हो गयी।

फिर वर्षा काल आने पर वह मल्हार गाने लगा। तब वह जिस नगर में था, वहां की राजकुमारी मनभावनी को उसकी आवाज इतनी भायी, कि उसने मन ही मन प्रण कर लिया, कि वह उस राग गाने वाले से ही विवाह करेगी। उसने अपनी दासी को उसे ढूंढने के लिए भेजा। दासी ने लौटकर राजकुमारी को बताया कि वह एक चौरंगिया है। परन्तु राजकुमारी अपनी जिद पर अड़ी रही। अगले दिन उठते ही वह अनशन पर बैठ गयी, कि विवाह करेगी तो उसी चौरंगिया से।

काफी समझाने बुझाने पर भी जब वह ना मानी, तो राजा ने उस तेली को बुला भेजा, और विवाह की तैयारी करने को कहा। फिर वीका का विवाह राजकुमारी से हो गया। तब एक दिन सोते हुए स्वप्न में शनिदेव ने वीका से कहा : राजन्, देखा तुमने मुझे छोटा बताकर कितना दुःख झेला है। तब राजा विक्रमादित्य ने उनसे क्षमा मांगी, और प्रार्थना की, कि हे शनिदेव जैसा दुःख आपने मुझे दिया है, वैसा किसी और को ना दें।

शनिदेव मान गये, और कहा: जो मेरी कथा और व्रत कहेगा, उसे मेरी दशा में कोई दुःख नही होगा। जो नित्य मेरा ध्यान करेगा, और चींटियों को आटा डालेगा, उसके सारे मनोरथ पूर्ण होंगे। साथ ही राजा को हाथ पैर भी वापस दिये। प्रातः आंख खुलने पर राजकुमारी ने देखा, तो वह आश्चर्यचकित रह गयी। वीका ने उसे बताया, कि वह उज्जैन का राजा विक्रमादित्य है। सभी अत्यंत प्रसन्न हुए। सेठ ने जब सुना, तो वह विक्रमादित्य के पैरों पर गिरकर क्षमा मांगने लगा। राजा विक्रमादित्य ने कहा, कि वह सब जो हुआ सब शनिदेव का कोप था। 
 
इसमें किसी का कोई दोष नहीं। सेठ ने फिर भी निवेदन किया, कि मुझे शांति तब ही मिलेगी जब आप मेरे घर चलकर भोजन करेंगे। सेठ ने अपने घर नाना प्रकार के व्यंजनों ने राजा का सत्कार किया। साथ ही सबने देखा, कि जो खूंटी हार निगल गयी थी, वही अब उसे उगल रही थी। सेठ ने अनेक मोहरें देकर राजा का धन्यवाद किया, और अपनी कन्या श्री कंवरी से पाणिग्रहण का निवदन किया। राजा ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।

कुछ समय पश्चात राजा अपनी दोनों रानियों मनभावनी और श्रीकंवरी को सभी दहेज सहित लेकर उज्जैन नगरी को चले। वहां पुरवासियों ने सीमा पर ही उनका स्वागत किया। सारे नगर में दीपमाला हुई, व सबने खुशी मनायी। राजा ने घोषणा की, कि मैंने शनि देव को सबसे छोटा बताया था, जबकि असल में वही सर्वोपरि हैं। तब से सारे राज्य में शनिदेव की पूजा और कथा नियमित होने लगी। सारी प्रजा ने बहुत समय खुशी और आनंद के साथ बिताया। जो कोई शनि देव की इस कथा को सुनता या पढ़ता है, उसके सारे दुःख दूर हो जाते हैं। शनिवार व्रत के दिन इस कथा को अवश्य पढ़ना चाहिये।