|| दोहा ||
	 
	सुमिर चित्रगुप्त ईश को, सतत नवाऊ शीश।
	ब्रह्मा विष्णु महेश सह, रिनिहा भए जगदीश ।।
	 
	करो कृपा करिवर वदन, जो सरशुती सहाय।
	चित्रगुप्त जस विमलयश, वंदन गुरूपद लाय ।।
	 
	 
	|| चौपाई ||
	 
	जय चित्रगुप्त ज्ञान रत्नाकर । जय यमेश दिगंत उजागर ।।
	 
	अज सहाय अवतरेउ गुसांई । कीन्हेउ काज ब्रम्ह कीनाई ।।
	 
	श्रृष्टि सृजनहित अजमन जांचा । भांति-भांति के जीवन राचा ।।
	 
	अज की रचना मानव संदर । मानव मति अज होइ निरूत्तर ।।
	 
	भए प्रकट चित्रगुप्त सहाई । धर्माधर्म गुण ज्ञान कराई ।।
	 
	राचेउ धरम धरम जग मांही । धर्म अवतार लेत तुम पांही ।।
	 
	अहम विवेकइ तुमहि विधाता । निज सत्ता पा करहिं कुघाता ।।
	 
	श्रष्टि संतुलन के तुम स्वामी । त्रय देवन कर शक्ति समानी ।।
	 
	पाप मृत्यु जग में तुम लाए । भयका भूत सकल जग छाए ।।
	 
	महाकाल के तुम हो साक्षी । ब्रम्हउ मरन न जान मीनाक्षी ।।
	 
	धर्म कृष्ण तुम जग उपजायो । कर्म क्षेत्र गुण ज्ञान करायो ।।
	 
	राम धर्म हित जग पगु धारे । मानवगुण सदगुण अति प्यारे ।।
	 
	विष्णु चक्र पर तुमहि विराजें । पालन धर्म करम शुचि साजे ।।
	 
	महादेव के तुम त्रय लोचन । प्रेरकशिव अस ताण्डव नर्तन ।।
	 
	सावित्री पर कृपा निराली । विद्यानिधि माॅं सब जग आली ।।
	 
	रमा भाल पर कर अति दाया । श्रीनिधि अगम अकूत अगाया ।।
	 
	ऊमा विच शक्ति शुचि राच्यो । जाकेबिन शिव शव जग बाच्यो ।।
	 
	गुरू बृहस्पति सुर पति नाथा । जाके कर्म गहइ तव हाथा ।।
	 
	रावण कंस सकल मतवारे । तव प्रताप सब सरग सिधारे ।।
	 
	प्रथम् पूज्य गणपति महदेवा । सोउ करत तुम्हारी सेवा ।।
	 
	रिद्धि सिद्धि पाय द्वैनारी । विघ्न हरण शुभ काज संवारी ।।
	 
	व्यास चहइ रच वेद पुराना । गणपति लिपिबध हितमन ठाना ।।
	 
	पोथी मसि शुचि लेखनी दीन्हा । असवर देय जगत कृत कीन्हा ।।
	 
	लेखनि मसि सह कागद कोरा । तव प्रताप अजु जगत मझोरा ।।
	 
	विद्या विनय पराक्रम भारी । तुम आधार जगत आभारी ।।
	 
	द्वादस पूत जगत अस लाए । राशी चक्र आधार सुहाए ।।
	 
	जस पूता तस राशि रचाना । ज्योतिष केतुम जनक महाना ।।
	 
	तिथी लगन होरा दिग्दर्शन । चारि अष्ट चित्रांश सुदर्शन ।।
	 
	राशी नखत जो जातक धारे । धरम करम फल तुमहि अधारे।।
	 
	राम कृष्ण गुरूवर गृह जाई । प्रथम गुरू महिमा गुण गाई ।।
	 
	श्री गणेश तव बंदन कीना । कर्म अकर्म तुमहि आधीना ।।
	 
	देववृत जप तप वृत कीन्हा । इच्छा मृत्यु परम वर दीन्हा ।।
	 
	धर्महीन सौदास कुराजा । तप तुम्हार बैकुण्ठ विराजा ।।
	 
	हरि पद दीन्ह धर्म हरि नामा । कायथ परिजन परम पितामा ।।
	 
	शुर शुयशमा बन जामाता । क्षत्रिय विप्र सकल आदाता ।।
	 
	जय जय चित्रगुप्त गुसांई । गुरूवर गुरू पद पाय सहाई ।।
	 
	जो शत पाठ करइ चालीसा । जन्ममरण दुःख कटइ कलेसा ।।
	 
	विनय करैं कुलदीप शुवेशा । राख पिता सम नेह हमेशा ।।
	 
	 
	|| दोहा ||
	 
	ज्ञान कलम, मसि सरस्वती, अंबर है मसिपात्र।
	कालचक्र की पुस्तिका, सदा रखे दंडास्त्र।।
	 
	पाप पुन्य लेखा करन, धार्यो चित्र स्वरूप।
	श्रृष्टिसंतुलन स्वामीसदा, सरग नरक कर भूप।।
	 
	 
	।। इति श्री चित्रगुप्त चालीसा समाप्त ।।