Home » Vrat Vidhi » पूजा एवं आरती का महत्व Details And Information
 

पूजा एवं आरती का महत्व

 

'पूजा' शब्द 2 पदों से मिलकर बना है। 'पो' अर्थात पूर्णता तथा 'जा' अर्थात 'से उत्पन्न'। अर्थात जो पूर्णता से उत्पन्न होती है वह है पूजा। जब हमारी चेतना पूर्ण हो जाती है तथा इस पूर्णता की स्थिति में हम कोई कर्म करते हैं तो वह कर्म पूजा कहलाता है। जब ह्रदय पूर्णता से आलोकित होता है और पूर्णता से अभिभूत स्थिति में हमारे द्वारा किये गए कार्य पूजा बन जाते हैं।

यह मानकर कि ईश्वर हमारे लिए जो कुछ कर रहा है वह सबकुछ पूजा है। ईश्वर हमें धान्य और अनाज देता है अतः हम उसे चावल चढाते हैं। ईश्वर हमें जल देता है अतः हम ईश्वर को जल चढाते हैं। ईश्वर ने हमें सुगंधों का उपहार दिया है अतः हम ईश्वर को इत्र चढाते हैं। वृक्षों पर हमारे लिए फल उत्पन्न किये गए हैं अतः हम भी ईश्वर को फल चढाते हैं। ईश्वर सूर्य और चन्द्र के माध्यम से प्रतिदिन हमारी आरती करता है अतः हम दिया जलाकर उसकी आरती का अनुसरण करते हैं।

ईश्वर प्रतिदिन हमारी अभ्यर्थना करता है और हम उसकी इसी अभ्यर्थना का अनुसरण पूजा के माध्यम से करते हैं। ह्रदय से किसी को आदर देना... आदर जो पूर्ण हो, वह पूजा कहलाता है। पूजा-कर्म का अंतिम चरण आरती के रूप में जाना जाता है।

'आरती' का क्या अर्थ है? इसका अर्थ है - 'पूर्ण आनंद'। रति का अर्थ है आनंद। अतः आरती का अर्थ है पूर्णानंद, अर्थात वह आनंद जिसमे दुःख का लेशमात्र भी ना हो और वह पूर्ण हो।
 
आरती कैसे की जाती है?
एक दिया जलाकर भगवान् के चारों ओर फिराया जाता है। दिया क्या बताता है? यह बताता है कि जीवन प्रकाश की भांति है। आप चाहे जिस दिशा में अग्नि को घुमाएँ, वह ऊर्ध्व के ओर ही गमन करेगी। इसी प्रकार जीवन की दिशा भी सदैव ऊर्ध्व की ओर होनी चाहिए। हमारा जीवन किसका परिक्रमण करे? हमारे जीवन को सदैव दिव्यता का परिक्रमण करना चाहिए। यही आरती है।

इसके पश्चात् बारी आती है मंत्रपुष्पांजलि की। मन्त्रों के माध्यम से मन की शुद्धि होती है और शुद्ध मन एक पुष्प की भांति खिलता है और यही खिला हुआ मन दिव्यता को अर्पित किया जाता है। आरती के माध्यम से मन एक खिला हुआ पुष्प बन जाता है।