पौष पूर्णिमा

 

पौष पूर्णिमा हिंदू विक्रमी सम्वत पंचांग में एक अति महत्वपूर्ण दिन है। यह आने वाले एक नए महीने की लंबी समयावधि की शुरुआत का प्रतीक है जो माघ महीने के समय अंतराल में मनाई जाती है। उत्तर भारत में जहां पर पूर्णिमांत चंद्र कैलेंडर का अनुसरण किया जाता है, पौष पूर्णिमा के अगले दिन से माघ माह शुरू हो जाता है।

यह माना जाता है कि गंगा और यमुना नदी के तट पर पौष पूर्णिमा के दिन आशीर्वाद लेने से आत्माओं को मुक्ति मिलती है। इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है कि यहां स्नान करने से सभी संक्रमणों से भी मुक्ति मिल जाती है और मृत्यु के बाद मिलने वाले मोक्ष मार्ग की और अग्रसर हो जाता हैं। 

लोग इस दिन खुद को प्रभु के श्री चरणों में समर्पित करने के साथ यह मानते हैं कि भगवान उनकी सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं। इस स्थान से अलग, कई व्यक्ति इस दिन उज्जैन, हरिद्वार, इलाहाबाद और नासिक में स्नान के लिए अन्य पवित्र स्थानों पर जाते हैं। जब वे डुबकी लगाते हैं, तो वे भगवान को पूजा करते है और सूर्य भगवान् को अर्घ्य देते हैं। 

वे इस पूजा को फलदायी बनाने के लिए कुछ धार्मिक क्रियाकलापों व् रीति-रिवाजों का पालन करते हैं। इसी तरह कुछ लोगों की यह मान्यता है कि इस दिन उपहार देना और परोपकार करना भी लाभदायक होता है। यह दिन अपने सभी अवगुणो का त्याग करने के लिए यह एक उत्तम दिन है। पौष पूर्णिमा के अवसर पर, देश भर में इस दिन को मनाने के लिए मंदिरो में भारी भीड़ जुटती है।

पौष पूर्णिमा पर्व शकुमारी देवी को समर्पित किया जाता है। उनको पृथ्वी पर शक्ति का अवतार माना जाता है। शकुमारी को सेब, नारंगी, सब्जियों और हरी सब्जियों की देवी के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। पौराणिक लेखनों में यह कहा गया है कि एक बार 100 वर्षों से अधिक समय तक बारिश नहीं होने के कारण पृथ्वी पर जीवों व पौधों का क्षय होने लगा। 

पौराणिक लोककथाओं के अनुसार शकुमारी देवी ने तब प्राणियों के जीवन की रक्षा करी तथा पृथ्वी पर अपने पैरों के चिन्हों की छाप छोड़ दी। वह नए जीवन का संचार करके प्राणियों पर कृपा करती है और साथ ही पानी की बूंदो की बौछार करती है। परिणामस्वरूप पृथ्वी पर फिर से जीवन पहले की भांति सुचारू रूप से चलने लगता है, इसी तरह यह पर्व शाकंभरी पूर्णिमा के रूप में भी मनाया जाता है।

पौष पूर्णिमा की ही भांति भाद्रपद पूर्णिमा के पर्व को भी मनाया जाता है। इस दिन, भगवान को केले के पत्ते, मिट्टी के उत्पाद, सुपारी, मोली, तिल, रोली, चावल, कुमकुम इत्यादि के साथ प्रार्थना की जाती है। इससे पहले, श्रद्धालु पंचामृत तैयार करते है। वे मिश्रण को उबालकर गेहूं और चीनी के साथ में प्रसाद बनाते हैं व पूजा के अंत में वितरित करते है।